डिनर डिप्लोमेसी : कांगड़ा के नेता बनने की सियासत, बाजी मारते दिख रहे राकेश पठानिया

 

संदीप उपाध्याय

शिमला. प्रदेश की सियासत में कांगड़ा जिला सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। सबसे बड़ा जिला है तो सबसे अधिक विधानसभा की सीटें हैं। कहा जाता है कि जिस पार्टी ने कांगड़ा किला जीत लिया, उसकी सरकार बन जाती है। सियासत में कांगड़ा का महत्व समझते हुए राजनेता भी कांगड़ा पर प्रभाव जमाने की दौड़ में रहते हैं। वर्तमान में भाजपा में कांगड़ा का नेतृत्व करने वाला नेता भाजपा में नजर नहीं आ रहा है। भाजपा के सीनियर नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री शांता कुमार के सक्रिय सियासत से सन्यास के कारण अब कांगड़ा में नेता की कमी दिख रही है। जिसके लिए भाजपा के कई नेता कांगड़ा जिले का नेतृत्व संभालने की सियासत में जुटे हैं। इसी में एक नए-नए मंत्री बने राजपूत नेता राकेश पठानिया हैं। तेजतर्रार, राजनीति के युवा चेहरे पठानिया अपने संघर्ष के लिए जाने जाते हैं। कभी भाजपा के टिकट पर तो कभी निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर अपने दम पर विधानसभा चुनाव जीत चुके हैं। नूरपुर की जनता के बीच उनकी अपनी अच्छी पकड़ हैं। अब अपनी इसी सियासी रणनीति के चलते वह कांगड़ा के लोगों के दिलों पर राज करने की ख्वाहिश रखते हैं। लंब संघर्ष के बाद मंत्री पद पाने के बाद वह नूरपुर तक सीमित न रहकर कांगड़ा के नेता बनने की रेस लगा रहे हैं। इसी के चलते विधानसभा सत्र के दौरान जब कांगड़ा चंबा संसदीय क्षेत्र के सभी विधायक शिमला में ही थे तो पठानिया ने मंत्री बनने के बाद मिली सरकारी कोठी में सभी विधायकों को डिनर पर बुलाया। डिनर में मुख्यमंत्री सहित सभी जिलों के विधायक शामिल हुए लेकिन मकसद कांगड़ा संसदीय क्षेत्र के विधायकों के साथ मधुर मिलन करना था।  

कांगड़ा जिले की सियासत में जातीय समीकरण भी महत्वपूर्ण हैं। कांग्रेस- भाजपा के नेता जातीय भेदभाव का विरोध करते हैं लेकिन राजनैतिक विजय के लिए जातीय समीकरण के आधार पर ही सियासत करते हैं। कांगड़ा जिले का जातीय समीकरण में ब्राम्हण, राजपूत, ओबीसी और गद्दी समुदाय पर बैठता है। कांगड़ा जिले की 15 विधानसभा क्षेत्रों को अपना अलग-अलग जातीय समीकरण हैं। कहीं ब्राम्हण या राजपूत का बाहुल्य है तो कहीं ओबीसी तो कहीं गद्दी समुदाय का बाहुल्य है। इन्हीं समुदायों में से भाजपा में शांता कुमार के सानिध्य में गद्दी समुदाय के किशन कपूर और ओबीसी वर्ग से रमेश ध्वाला सीनियर नेता के तौर पर रहे। वर्तमान में किशन कपूर सांसद बनकर दिल्ली की सियासत का हिस्सा बने तो रमेश ध्वाला मंत्री न बन पाने के कारण सियासत में पीछे रह गए। शांता कुमार के ही सियासी शिष्य विपन परमार सरकार बनने पर मंत्री बने लेकिन वह सत्ता की गाड़ी में ज्यादा दिन तक सवार नहीं रह सके। स्वास्थ्य विभाग में भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे और सवाल उठते रहे। परिणाम यह हुआ कि विपन परमार मंत्री पद से अलग होकर विधानसभा के अध्यक्ष बना दिए गए। इसके बाद सरकार में कांगड़ा जिले से राजपूत नेता को स्थान देने के लिए राकेश पठानिया को मंत्री पद दिया गया। मंत्री बनने के बाद राकेश पठानिया कांगड़ा जिले में सक्रिय हो गए। सियासत के अपने उसूलों के चलते राकेश पठानिया ने शपथ लेने के बाद सीधे शांता कुमार आ आर्शीर्वाद पालमपुर जाकर लिया। वहीं पर उन्होंने राज्यसभा सांसद इंदु गोस्वामी से भी मुलाकात की तो धर्मशाला जाकर सांसद किशन कपूर से भी भेंट की। कांगड़ा जिले में पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल का भी प्रभाव है तो पठानिया ने धूमल का आशीर्वाद भी समीरपुर जाकर लिया। भाजपा नेताओं के साथ-साथ पठानिया ने जिले के राजपूत वर्ग के नेताओं के साथ भी सियासी गुफ्तगू कीं। इसके बाद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के कांगड़ा दौरे पर पठानिया ने स्वागत समारोह से लेकर सभी कार्यक्रमों में मुख्यमंत्री के संग रहे। अभी हाल ही मुख्यमंत्री डरोह में पुलिस विभाग के कार्यक्रम में गए तो पठानिया भी शिमला से साथ गए। इस तरह पठानिया लगातार कांगड़ा की सियासत में अंग्रिम पंक्ति में नजर आ रहे हैं।  अब इसी सियासत की आगे की कड़ी में पठानिया ने शिमला में ही कांगड़ा संसदीय क्षेत्र के सभी विधायकों को डिनर पर बुलाया। मुख्यमंत्री संग सभी विधायकों की मेजवानी पठानिया ने की और अपनेपन का अहसास कराया। पठानिया हर वो कदम उठा रहे हैं जिससे जनता में यह संदेश सीधे तौर पर जाए कि वह मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के करीबी हैं। विधानसभा सत्र के दौरान सदन में विपक्ष के आरोपों के खिलाफ आवाज पठानिया की बुलंद होती है और वह विपक्ष के आरोपों का जवाब देने के लिए खड़े नजर आते हैं। जिससे साफ होता है कि पठानिया यह साबित करना चाहते हैं कि वह मुख्यमंत्री के साथ दमखम के साथ खड़े हैं। ऐसे ही पठानिया पूर्व में पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के साथ भी खड़े नजर आते रहे हैं। लेकिन सियासत की किसी बात पर अन बन हो गई और धूमल से राजनैतिक दूरी बन गई थी। यही कारण था कि लंबे समय तक पठानिया को पार्टी से बाहर भी रहना पड़ा और निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव भी लड़ना पड़ा। लेकिन संघर्ष के रास्ते से वह पीछे नहीं हटे और कई सियासी मुसीबतों के बीच वह चुनाव जीते और अब सरकार में मंत्री बने। अब देखना है कि लंबे समय के सियासी उठापठक के बाद पटरी पर आई पठानिया की राजनैतिक राह किन ऊंचाइयों तक पहुंचती है। फिरहाल तो यही लगता है कि अपने 20 साल से अधिक के सियासी संघर्ष में पठानिया इनता तो सीख ही गए हैं कि सियासी चालों से बचकर कैसे निकलता है और मंजिल कैसे हासिल करनी है। उम्मीद तो यही है कि मंत्री पद संभालने के बाद कांगड़ा के नेता बनने की दौड़ में पठानिया बाजी मारेंगे, क्योंकि अभी कोई बड़ा सियासी प्रतिद्वंदी भी सामने नजर नहीं आ रहा जो उनके मुकाबले खड़ा हो सके।